
दुर्ग। मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय एवं नगरीय प्रशासन मंत्री व उपमुख्यमंत्री श्री अरुण साव के सुशासन और “जीरो टॉलरेंस” की नीति का प्रभाव यदि वास्तव में धरातल पर लागू है, तो दुर्ग नगर निगम के भीतर चल रही अनुकंपा नियुक्ति की गड़बड़ी और वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका पर तत्काल सख्त कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही? यह सवाल अब दुर्ग के नगर निगम परिसर से निकलकर शासन के गलियारों तक गूंजने लगा है।
लगभग दो साल पहले निगम कर्मचारी अशोक करिहार की आत्महत्या के बाद उनके पुत्र को दस दिन के भीतर जिस प्रकार से अनुकंपा नियुक्ति दे दी गई, वह अब कई प्रकार के गंभीर प्रश्नों को जन्म दे रही है। न तो उस समय मृतक का पोस्टमार्टम रिपोर्ट उपलब्ध था, न मृत्यु प्रमाण पत्र जारी हुआ था, बावजूद इसके तत्कालीन स्थापना प्रभारी उपायुक्त महेंद्र साहू द्वारा आनन-फानन में नियुक्ति दी गई।
सवाल यह भी है कि क्या आत्महत्या जैसे गंभीर मामले में निगम प्रशासन ने किसी तरह की विभागीय जांच बिठाई? या फिर खुद को आरोपों से बचाने के लिए जल्दबाज़ी में नियुक्ति देकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया?
सुसाइड नोट की प्रति के अनुसार अशोक करिहार ने प्रताड़ना का खुला आरोप लगाया था। इसके बावजूद न तो किसी अधिकारी को जांच के लिए निलंबित किया गया, न ही अब तक कोई सार्वजनिक निष्कर्ष सामने आया है। ऐसे में हाल ही में तीन थर्ड और फोर्थ ग्रेड के कर्मचारियों पर की गई कार्रवाई को लेकर कर्मचारी संगठनों और आम जनता के बीच यह धारणा बन रही है कि निगम प्रशासन सिर्फ कमजोर कड़ियों पर ही “सख्ती” दिखा रहा है, जबकि शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों को संरक्षण प्राप्त है।
राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस (INTUC) ने भी इस मामले को लेकर निष्पक्ष जांच और महेंद्र साहू को तत्काल प्रभाव से हटाए जाने की मांग की है। संगठन का कहना है कि जब तक महेंद्र साहू पद पर बने रहेंगे, तब तक जांच की निष्पक्षता संदिग्ध बनी रहेगी।

दुर्ग निगम आयुक्त सुमित अग्रवाल के लिए यह एक अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। अब उन्हें तय करना है कि वे मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री द्वारा घोषित ‘सुशासन’ और ‘भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन’ के नारे को जमीनी हकीकत में बदलना चाहते हैं या नहीं।
यदि इस मामले में कोई ठोस और निष्पक्ष कार्रवाई नहीं होती है, तो यह केवल दुर्ग निगम नहीं, बल्कि शासन की “जीरो टॉलरेंस” नीति की साख को भी कठघरे में खड़ा कर देगा।